कमाथन तेकर ले आगर तो गवांथन

देश म महंगाई ह दिनो-दिन सुरसा सही मुंह फारत हावय, आदमी के आमदनी तको उही मुताबिक बाढ़त हावय। जेन सामान चार आना म आवत रिहिसे वो अब चार कोरी म आथे। बिसइया तको तो पांच रूपिया रोजी नही तीन सौ पावत हावय। काम मिलत हावय अउ बरोबर रोजी पावत हावय तेकर बर तो अब के समे म तको परवार चलाना साहज हावय फेर जेकर कना काम नइये, मन माफिक मजूरी नइ मिलत हावय ऊंकर हालत ठीक नइये। लेदे के अपन गुजारा करत हावय। छत्तीसगढ़ म तो स्थानीय मजदूर के हालत अउ जादा खराब हाबे। आदमी के मुताबिक काम नइये, काम मिलथे भी तव मजदूरी कम देथे। मनरेंगा अऊ आन विकास के काम सिरिफ गांव कोति चलत हावय तव शहर के गरीब का करय? शहर मन म तको गरीबहा लोगन मन बसे हावय। इहां काम के कमी नइये फेर स्थानीय मजदूर ल मिलय तभे तो। इहां तो बाहिर के मजदूर मन आके कम दाम म काम करे बर तियार हो जथे। हाथ अउ गोड़ धरके आए रिथे, परवार कहू अउ कमावत-खावत हावय। ओमन अपन पेट पोस बर स्थानीय मजूदर मनके पेट मार देथे। उपर ले सरकार के संपत्ति कर के बढ़ोतरी, दूबर बर दू असाढ़ होगे। सरकार ह पहिली तो बढ़ाय के गुनान करिस। अऊ जब प्रदेश भर म विरोध होइस तव कलेक्टर दर म उतरगे। येकर बड़े मन ले जादा छोटे अउ मंझोलन परिवार के बोझा बाढ़ही काबर के बड़े मन तो आगर ले आगर रूपिया धरे रिथे। फेर कमजोरहा मन कना तो सिरिफ खरचा के पुरति करारी रूपिया रिथे। अहू रूपिया हा सिरिफ घर खरचा खातिर रइथे। चाऊर-दार, दवई-दारू, तिहरहा खरचा, बर-बिहाव सही सब म मारे मजदूर मनखे मन घर म जादा रकम सकेल के रखे नइ सकय। हमर छत्तीसगढ़ ल भले हम परब संस्कृति के गढ़ कहिके छाती तानथन फेर खरचा के हिसाब ले देखे जाए तब इही सब तीज तिहार के मारे रूपिया के बचत नइ हो सकय। जतके के ततके होथे कतको कमा ले। महीना भर कुद-कुद के कमाबे ताहन महीना म कोनो तिहार परगे, सिरागे रूपिया। तिहार ल नइ मनाबो तेनो नइ बनय, अऊ थोक बहुत म तिहार होवय तको नहीं। जरत ले महंगाई उपर म कोरी खैरखा परवार। नान-नान काम म बेड़ा भर के पूछ परख कर खवा-पिया। नइ खवाबे तव आनी बानी के गारी खाबे। गरीब हाबन तभो ले आत्मसम्मान, स्वाभिमान सब जाग जथे। भले करजा होही ते होही फेर सुकालू ले कम खरचा नइ करय दूकालू। रूपिया नइये कहू ले करजा कर फेर सुकालू कस तहू होरी, देवारी नइ मनाबे तव समाज का कही! समाज तको अब आदमी ल उबारत नइये बोरत हावय। पारिवारिक अउ सामाजिक बने के चक्कर म हम आर्थिक रूप ले कतका कंगाल होवथाबन येला समाज के लोगन मन देखते होही। अबही बर-बिहाव के आरो मिलत हावय, दनादन बजार के खरीदारी चलत हावय। सोनार, हलवई, कोष्टा लाइन म आनी-बानी जिनिस के देखनी हावय। नेंग के जोरन के मइके के ससुरार के लराझरा काकी-कका, ममा-मामी अतका सकला जथे के लेवत-देवत ले हक खा जबे। घर म कही नइये तभो ले काखरो ले कम नइयन। बढ़हर मनके देखा-सीखी आए, के खरचा करे के खातिर कमाथे मजदूर मन, उही जानय। सरी जमा पूंजी गवांथे जाथे तबसुरता आथे के कमायेन तेकर ले आगर तो गवाये हन।
 * जयंत साहू*
jayantsahu9@gmail.com
9826753304
cont-: dunda ward 52 Raipur Chhatttisgarh

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (07-03-2016) को "शिव का ध्यान लगाओ" (चर्चा अंक-2274) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. सार्थक व प्रशंसनीय रचना...
    महाशिवरात्रि पर्व की शुभकामनाएँ!!
    मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है।

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  3. जेन संगवारी मन कापी पेस्ट करत हवं ओमन लेखक के नाम जरूर दे के किरपा करहूं. जय जोहार.

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